Saturday, 22 January 2011
26 जनवरी गणतंत्र दिवस की एकता यात्रा व विरोध के स्वरों का निहितार्थ
26 जनवरी गणतंत्र दिवस की एकता यात्रा व विरोध के स्वरों का निहितार्थ
जबसे राज्य में उमर अब्दुल्ला मु.मं.बने हैं हम सोचते थे कि cong - PDP गठबंधन के समय बने आतंक समर्थक नेताओं के बाद अब वातावरण सुधरेगा. किन्तु यह तो PDP से बड़ा पाकि. निकला ! जब देश का तिरंगा जलाया जाता है तो इनकी सरकार आंख बंद रखती है ! जब अमरनाथ यात्रिओं को दी सुविधा की घोषणा रोक ली जाती है, जहाँ पाक समर्थक टोले को संतुष्ट करना सरकारी आवश्यकता हो! वहां मनोबल आतंकियों का बढ़ाया जाता है, सेना को अपराधी ठहराया जाता है! आवश्यक हो जाता है सेना व जानता का मनोबल बढ़ाया जाये और यह दायित्व बनता है सरकार का! केंद्र व राज्य सरकार अपना दायित्व न निभाए तो राष्ट्रवादी सोच के दल ने यह बीड़ा उठाया ! राष्ट्रवाद के मानबिंदु राष्ट्र ध्वज को राष्ट्रीय उत्सव पर फहराना सेना व जानता के मनोबल का प्रतीक बनता है, राजनीति का नहीं ! इसका विरोध करना, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उनका साथ देना राष्ट्र के शत्रुओं का कार्य है ! राजनैतिक रोटी सेकना इसे कहते हैं !
सारा चित्र और स्पष्ट करने हेतु दृश्य पटल का विस्तार करते है:
कुछ पीछे चलते हैं जब प्रधानमंत्री जी ने कश्मीर मुद्दे पर बुलाई सर्वदलीय बैठक में एक बड़ी गम्भीर और व्यापक बहस छेड़ने वाली बात कह दी कि "यदि सभी दल चाहें तो कश्मीर को स्वायत्तता दी जा सकती है…", किन्तु आश्चर्य की बात है कि भाजपा को छोड़कर किसी भी दल ने इस बात पर आपत्ति दर्ज करना तो दूर स्पष्टीकरण माँगना भी उचित नहीं समझा।हमारे एक मित्र सुरेश चिपलूनकर जी के अनुसार प्रधानमंत्री द्वारा प्रस्तावित "स्वायत्तता" का क्या अर्थ है? क्या प्रधानमंत्री या कांग्रेस स्वयं भी इस बारे में स्पष्ट है? या ऐसे ही हवा में कुछ वक्तव्य उछाल दिया? कांग्रेस वाले स्वायत्तता किसे देंगे? उन लोगों को जो वर्षों से भारतीय टुकड़ों पर पल रहे हैं फ़िर भी अमरनाथ में यात्रियों की सुविधा के लिये अस्थाई रुप से भूमि का एक टुकड़ा देने में उन्हें कष्ट होने लगता है और विरोध में सड़कों पर आ जाते हैं… या स्वायत्तता उन्हें देंगे जो इस भूमि पर सरेआम भारत का तिरंगा जला रहे हैं, 15 अगस्त को "काला दिवस" मना रहे हैं?
इतने गम्भीर मुद्दे पर राष्ट्रीय मीडिया, समाचारपत्रों और चैनलों की ठण्डी प्रतिक्रिया और शून्य प्रस्तुति और भी आश्चर्य पैदा करने वाली थी। प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य के बाद भी, मीडिया क्या दिखा रहा था ? 1) शाहरुख खान ने KKR के लिये पाकिस्तानी खिलाड़ी को खरीदा और पाकिस्तान के खिलाड़ियों का समर्थन किया… 2) राहुल गाँधी की लोकप्रियता में भारी उछाल…, 3) पीपली लाइव की लॉंचिंग… आदि-आदि-आदि। कश्मीर की हिंसा के बारे क्या दिखाया गया ?… मात्र शीर्षक, उपशीर्षक, संकेतक और स्क्रीन में नीचे चलने वाले स्क्रोल में अधिकतर आपको "कश्मीर में गुस्सा…", "कश्मीर का युवा आक्रोशित…", "कश्मीर में सुरक्षा बलों पर आक्रोशित युवाओं की पत्थरबाजी…" जैसी खबरें दिखाई गई। प्रश्न उठता है कि क्या मीडिया और चैनलों में राष्ट्रबोध नाम की चीज़ एकदम समाप्त हो गई है? या ये किसी के संकेत पर इस प्रकार के शीर्षक दिखाते हैं?
भारत की सरकार के कई कानून वहाँ लागू नहीं, कुछ को वे मानते नहीं, उनका झण्डा अलग है, उनका संविधान अलग है! भारत सरकार (यानी प्रकारान्तर से करोड़ों टैक्स भरने वाले) तो इन कश्मीरियों को 60 साल से पाल-पोस रहे हैं,धारा 370 के तहत उन्हें प्राप्त विशेषाधिकार के कारण भारत का नागरिक वहाँ भूमि खरीद नहीं सकता, हिन्दुओं(कश्मीरी पण्डितों) को सुनियोजित" धार्मिक छटनी" के तहत कश्मीर से बाहर खदेड़ा जा चुका है… फ़िर इन्हें किस बात का आक्रोश?
कहीं यह हरामखोरी की चर्बी तो नहीं? लगता तो यही है। अन्यथा क्या कारण है कि 14-15 साल के लड़के से लेकर यासीन मलिक, गिलानी और अब्दुल गनी लोन जैसे बुज़ुर्ग भी भारत सरकार से, जब देखो तब खफ़ा रहते हैं। पूरे देश का खून निचोढ़ कर खटमल पाले जा रहे हैं और खटमल ही आक्रोश दिखाए ? आश्चर्य !
जबकि दूसरी तरफ़ देखें तो भारत के नागरिक, हिन्दू संगठन, सभी कर दाता और भारत को अखण्ड देखने की चाह रखने वाले देशप्रेमी… जिनको वास्तव में गुस्सा आना चाहिये, आक्रोशित होना चाहिये, रोष जताना चाहिये… वे नपुंसक की भांति चुपचाप बैठे और "स्वायत्तता" का राग सुन रहे थे? कोई भी उठकर ये प्रश्न नहीं करता कि कश्मीर के पत्थरबाजों को पालने, यासीन मलिक जैसे देशद्रोहियों को दिल्ली लाकर पाँच सितारा होटलों में रुकवाने और भाषण करवाने के लिये हम टैक्स क्यों दें? किसी राजदीप या बुरका दत्त ने कभी किसी कश्मीरी पण्डित का इंटरव्यू लिया कि उसमें कितना आक्रोश है?
लाखों हिन्दू लूटे गये, बलात्कार किये गये, उनके मन्दिर तोड़े गये, क्योंकि गिलानी के पाकिस्तानी आका ऐसा चाहते थे, तो जिन्हें गुस्सा आया होगा कभी उन्हें किसी चैनल पर दिखाया? नहीं दिखाया, क्यों? क्या आक्रोशित होने और गुस्सा होने का अधिकार केवल कश्मीर के हुल्लड़बाजों को ही है, राष्ट्रवादियों को नहीं?
किन्तु जैसे ही "राष्ट्रवाद" की बात की जाती है, मीडिया को हुड़हुड़ी का बुखार आ जाता है, राष्ट्रवाद की बात करना, हिन्दू हितों की बात करना तो मानो वर्जित ही है… किसी टीवी एंकर की औकात नहीं है कि वह कश्मीरी पण्डितों की दुर्गति और नारकीय परिस्थितियों पर कोई कार्यक्रम बनाये और उसे शीर्षक बनाकर जोर-शोर से प्रचारित कर सके, कोई चैनल देश को यह नहीं बताता कि आज तक कश्मीर के लिये भारत सरकार ने कितना-कुछ किया है, क्योंकि उनके मालिकों को "राजनीति के अनुसार" रहना है, उन्हें कांग्रेस को रुष्ट नहीं करना है… स्वाभाविक सी बात है कि तब जनता पूछेगी कि इतना पैसा खर्च करने के बाद भी कश्मीर में बेरोज़गारी क्यों है? विगत 60 वर्ष से कश्मीर में किसकी सरकार चल रही थी? दिल्ली में बैठे सूरमा, खरबों रुपये खर्च करने बाद भी कश्मीर में शान्ति क्यों नहीं ला सके? ऐसे असुविधाजनक प्रश्नों से "शर्म-निरपेक्ष" भी बचना चाहता है, इसलिये हमें समझाया जाता रहा है कि "कश्मीरी युवाओं में आक्रोश और गुस्सा" है।
इधर अपने देश में गद्दार श्रेणी का मीडिया है, प्रस्तुत चित्र में देखिये "नवभारत टाइम्स अखबार" चित्र के शीर्षक में लिखता है "कश्मीरी मुसलमान महिला" और "भारतीय पुलिसवाला", क्या अर्थ है इसका? क्या नवभारत टाइम्स संकेत करना चाहता है कि कश्मीर भारत से अलग हो चुका है और भारतीय पुलिस(?) कश्मीरी मुस्लिमों पर अत्याचार कर रही है? यही तो पाकिस्तानी और अलगाववादी कश्मीरी भी कहते हैं… हास्यास्पद लगता है जब यही मीडिया संस्थान "अमन की आशा" टाइप के आलतू-फ़ालतू कार्यक्रम भी आयोजित करते हैं।
जबकि उधर पाकिस्तान में उच्च स्तर पर सभी के सभी लोग कश्मीर को भारत से अलग करने में जी-जान से जुटे हैं, इसका प्रमाण यह है कि हाल ही में जब संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान किं मून ने कश्मीर के सन्दर्भ में अपना विवादास्पद बयान पढ़ा था (बाद में उन्होंने कहा कि यह उनका मूल बयान नहीं है)... वास्तव में बान के बयान का आलेख बदलने वाला व्यक्ति संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान का प्रवक्ता फ़रहान हक है, जिसने मूल बयान में हेराफ़ेरी करके उसमें "कश्मीर" जोड़ दिया। फ़रहान हक ने तो अपने देश के प्रति देशभक्ति दिखाई, किन्तु भारत के तथाकथित सेकुलरिज़्म के पैरोकार क्यों अपना मुँह सिले बैठे रहते हैं?
विश्व भर में दाऊद इब्राहीम का पता लेकर घूमते रहते हैं… दाऊद यहाँ है, दाऊद वहाँ है, दाऊद ने आज खाना खाया, दाऊद ने आज पानी पिया… अरे भाई, देश की जनता को इससे क्या मतलब? देश की जनता तो तब खुश होगी, जब सरकार "रॉ" जैसी संस्था के आदमियों के सहयोग से दाऊद को पाकिस्तान में घुसकर निपटा दें… और फ़िर मीडिया भारत की सरकार का अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर गुणगान करे… यह तो मीडिया और सरकार से बनेगा नहीं… इसलिये "अमन की आशा" का राग अलापते हैं…।
दिल्ली और विभिन्न राज्यों में एक "अल्पसंख्यक आयोग" और "मानवाधिकार आयोग" नाम के दो "बिजूके" बैठे हैं, किन्तु इनकी दृष्टी में कश्मीरी हिन्दुओं का कोई मानवाधिकार नहीं है, गलियों से आकर पत्थर मारने वाले, गोलियाँ चलाने वालों से सहानुभूति है, किन्तु अपने घर-परिवार से दूर रहकर 24 घण्टे अपना दायित्व निभाने वाले सैनिक के लिये कोई मानवाधिकार नहीं? मार-मारकर भगाये गये कश्मीरी पण्डित इनकी दृष्टी में "अल्पसंख्यक" नहीं हैं, क्योंकि "अल्पसंख्यक" की परिभाषा भी तो इन्हीं कांग्रेसियों द्वारा गढ़ी गई है।
जब मनमोहन सिंह जी को यह कहना तो याद रहता है कि "देश के संसाधनों पर पहला हक मुस्लिमों का है…", किन्तु कश्मीरी पंडितों के दर्द और लाखों अमरनाथ यात्रियों के औचित्यपूर्ण अधिकार के मुद्दे पर उनके मुँह में दही जम जाता है। तब सारा शासन प्रशासन, उनके सहारे चलते राज्य सभी उसका अनुसरण ही करेंगे ! वास्तव में गाँधीवादियों, सेकुलरों और मीडिया ने मिलकर एकदम "बधियाकरण" ही कर डाला है देश का… देशहित से जुड़े किसी मुद्दे पर कोई सार्थक बहस नहीं, भारत के हितों से जुड़े मुद्दों पर देश का पक्ष लेने की बजाय, या तो विदेशी ताकतों का गुणगान या फ़िर देशविरोधी ताकतों के प्रति सहानुभूति पैदा करना… आखिर कितना गिरेगा हमारा मीडिया?
अब जबकि खरबों रुपये खर्च करने के बाद भी कश्मीर की स्थिति 20 वर्ष पूर्व जैसी ही है, तो समय आ गया है कि हमें गिलानी-यासीन जैसों से दो-टूक बात करनी चाहिये कि आखिर किस प्रकार की आज़ादी चाहते हैं वे? कैसी स्वायत्तता चाहिये उन्हें? क्या स्वायत्तता का अर्थ यही है कि भारत उन लोगों को अपने आर्थिक संसाधनों से पाले-पोसे, वहाँ बिजली परियोजनाएं लगाये, बाँध बनाये… यहाँ तक कि डल झील की सफ़ाई भी केन्द्र सरकार करवाये? उनसे पूछना चाहिये कि 60 वर्ष में भारत सरकार ने जो खरबों रुपया दिया, उसका क्या हुआ? उसके बदले में पत्थरबाजों और उनके आकाओं ने भारत को एक पैसा भी लौटाया? क्या वे केवल बेशर्मी का खाना ही जानते हैं, चुकाना नहीं?
गलती पूरी तरह से उनकी भी नहीं है, नेहरु ने अपनी गलतियों से जिस कश्मीर को हमारी छाती पर बोझ बना दिया था, उसे ढोने में सभी सरकारें लगी हुई हैं… जो वर्ग विशेष को खुश करने के चक्कर में कश्मीरियों की सेवा करती रहती हैं। ये जो बार-बार मीडियाई भाण्ड, कश्मीरियों का गुस्सा, युवाओं का आक्रोश जैसी बात कर रहे हैं, यह आक्रोश और गुस्सा मात्र "पाकिस्तानी" भावना रखने वालों के दिल में ही है, अन्यों के दिल में नहीं, तो यह लोग मशीनगनों से गोलियों की बौछार खाने की औकात ही रखते हैं जो कि उन्हें दिखाई भी जानी चाहिये…, उलटे यहाँ तो सेना पूरी तरह से हटाने की बात हो रही है। अलगाववादियों से सहानुभूति रखने वाला देशभक्त हो ही नहीं सकता, उन्हें जो भी सहानुभूति मिलेगी वह विदेश से…। चीन ने जैसे थ्येन-आनमन चौक में विद्रोह को कुचलकर रख दिया था… अब तो वैसा ही करना पड़ेगा।
कश्मीर को 5 वर्ष के लिये पूरी तरह सेना को सौंप दो, अलगाववादी नेताओं को बंद करके जेल में सड़ाओ या उड़ाओ, धारा 370 समाप्त करके जम्मू से हिन्दुओं को कश्मीर में बसाना शुरु करो और उधर का जनसंख्या सन्तुलन बदलो…विभिन्न प्रचार माध्यमों से मूर्ख कश्मीरी उग्रवादी नेताओं और "भटके हुए नौजवानों"(?) को समझाओ कि भारत के बिना उनकी औकात दो कौड़ी की भी नहीं है… क्योंकि यदि वे पाकिस्तान में जा मिले तो नर्क मिलेगा और उनके दुर्भाग्य से "आज़ाद कश्मीर"(?) बन भी गया तो अमेरिका वहाँ किसी न किसी बहाने कदम जमायेगा…, अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी की चिंता मत करो… पाकिस्तान जब भी कश्मीर राग अलापे, पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर का मुद्दा जोरशोर से उठाओ…ऐसे कई-कई कदम हैं, जो तभी उठ पायेंगे, जब मीडिया सरकार का साथ दे और "अमन की आशा" जैसी नॉस्टैल्जिक उलटबाँसियां न करे…।
किन्तु अमेरिका क्या कहेगा, पाकिस्तान क्या सोचेगा, संयुक्त राष्ट्र क्या करेगा, चीन से सम्बन्ध खराब तो नहीं होंगे जैसी "मूर्खतापूर्ण और कायरतापूर्ण सोचों" के कारण ही हमने इस देश और कश्मीर का ये हाल कर रखा है… कांग्रेस आज कश्मीर को स्वायत्तता देगी, कल असम को, परसों पश्चिम बंगाल को, फ़िर मणिपुर और केरल को…? इज़राइल तो बहुत दूर है… हमारे पड़ोस में श्रीलंका जैसे छोटे से देश ने तमिल आंदोलन को कुचलकर दिखा दिया कि यदि नेताओं में "रीढ़ की हड्डी" में जान हो, जनता में देशभक्ति की भावना हो और मीडिया सकारात्मक रुप से देशहित में सोचे तो बहुत कुछ किया जा सकता है…
किन्तु यहाँ तो मु.मं.उमर एकता यात्रा को रोकने की धमकी देते हैं, किन्तु यात्रा विरोधी प्रदर्शन को नहीं ! जो शक्ति वो एकता यात्रा को रोकने में लगा रहे हैं काश उसका एक अंश भी तिरंगा जलाने वालों को रोकने में लगाया होता तो आतंकियों का मनोबल इतना न बढता और तिरंगा या एकता यात्रा विवाद का विषय नहीं बनता! हमारे विषद का विषय यही है !!
विविध विषयों पर मेरे अन्य लेख, भारतीय वायु सेना के उप प्रमुख अवम(से.नि.)विश्व मोहन त्तिवारी व् अन्य मित्रों के लेख आप देख तथा उनपर टिपण्णी कर सकते हैं
-- तिलक संपादक युग दर्पण 09911111611
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